भारत में दीपावली का शुभारंभ ‘धनतेरस’ के त्योहार के साथ होता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ‘धनतेरस’ क्यों मनाया जाता है और इस दिन किस देवी-देवता की पूजा अर्चना की जाती है ?
इस दिन को ‘धनतेरस’ के नाम से क्यों जाना जाता है ?
उल्लेखनीय है इस दिन को ‘धनतेरस’ के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन ही भगवान धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। धन्वन्तरि जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथों में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि पीतल का कलश लेकर प्रकट हुए थे। इसलिए इस अवसर पर बर्तन खरीदने की अनोखी परम्परा आज भी प्रचलित है। केवल इतना ही नहीं इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।
क्यों महत्वपूर्ण होता है धनतेरस का दिन ?
धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं। इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बेहद अहम होता है। धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा यह भी प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या ? दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। परन्तु जब यमराज ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया था लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके।
धनतेरस की शाम लोग आंगन में यम देवता के नाम पर दीप जलाकर
एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आंगन में यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं।
धन्वन्तरि हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य
धन्वन्तरि को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। ये एक महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण त्रयोदशी के दिन हुआ था। इसीलिए दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वन्तरि का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था। इन्हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजाएं हैं। ऊपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किए हुए हैं जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिए हुए हैं।
अमृतमय औषधियों के खोजकर्ता माने जाते हैं धन्वन्तरि
आयुर्वेद चिकित्सा करने वाले वैद्य इन्हें आरोग्य का देवता भी कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने शल्य चिकित्सा का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया था। जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाए गए थे। सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ऋषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले शल्य चिकित्सक थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया। धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गई।
महाभारत और पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में इनका उल्लेख
महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्र मंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रूप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है। अतः यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अतः तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियां प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुनः जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसी वर के अनुसार पुत्रकाम काशीराज धन्व की तपस्या से खुश होकर जब भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे। वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहणकर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बांट दिया। वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ। जहां अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहां धन्वन्तरि को अमृत कलश मिला, क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं। इसीलिए रोगों से रक्षा करने वाले धन्वन्तरि को विष्णु का अंश माना गया।