उत्तराखंड आपदा:कटते जंगल, पर्यटन के बढ़ते दबाव से ढीले पड़े पहाड़,बढ़ते खतरे

National News

(नई दिल्ली)07अगस्त ,2025.

उत्तराखंड में बीते दो दशक में विकास परियोजनाओं की अंधाधुंध दौड़ और बेतरतीब पर्यटन वृद्धि ने हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को गंभीर संकट में डाल दिया है। जहां एक ओर 1.85 लाख हेक्टेयर यानी 1,850 वर्ग किलोमीटर जंगलों की कटाई ने पहाड़ों की जलधारण क्षमता और जैव विविधता को कमजोर किया है, वहीं दूसरी ओर पर्यटकों की संख्या तीन गुना बढ़कर 5 करोड़ के पार पहुंच गई है, जिससे पर्वतीय इलाकों पर असहनीय दबाव पड़ा है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तराखंड में भूस्खलन, जल स्रोतों का सूखना, ग्लेशियर पिघलाव और पारिस्थितिकीय असंतुलन की घटनाएं इसी दोहरे दबाव का परिणाम हैं जिसका असर गंगा-यमुना के मैदानों तक फैल चुका है।

1.85 लाख हेक्टेयर वन भूमि विभिन्न विकास कार्यों के लिए डायवर्ट की:

उत्तराखंड वन विभाग और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2005 से 2025 के बीच करीब 1.85 लाख हेक्टेयर वन भूमि विभिन्न विकास कार्यों के लिए डायवर्ट की गई है। यह क्षेत्र दिल्ली (1,484 वर्ग किमी) से बड़ा और गोवा (3,702 वर्ग किमी) का लगभग आधा है।

सड़क निर्माण, चारधाम परियोजना, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन, ट्रांसमिशन लाइनें और खनन इन वनों की कटाई के मुख्य कारण रहे हैं। राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 24,305 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल करीब 45.46% वन आच्छादित है।

20 वर्षों में 1,850 वर्ग किलोमीटर जंगलों की कटाई का अर्थ है कि राज्य ने अपने कुल वनों का 7.6% हिस्सा खो दिया है।

संतुलन साधना जरूरी:

पर्यावरणविद डॉ. अनुज जोशी चेताते हैं, विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन साधे बिना पहाड़ों से इस तरह जंगलों का गायब होना हिमालय की स्थिरता के लिए विनाशकारी है। यदि यही स्थिति रही तो उत्तराखंड में गंगा और यमुना के मैदानों तक आपदाओं की तीव्रता महसूस होगी।

कटे जंगलों के दुष्परिणाम:
भूस्खलन और जलधारण क्षमता में गिरावट वनों की कटाई से पहाड़ों की पकड़ ढीली हुई है जिससे उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, टिहरी और चमोली में भूस्खलन की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं।

ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार दोगुनी हुई वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी की रिपोर्ट के अनुसार जंगलों के क्षरण व तापमान वृद्धि के कारण राज्य के ग्लेशियर अब औसतन 15-20 मीटर प्रति वर्ष की दर से पीछे हट रहे ।

जैव विविधता पर संकट:
कस्तूरी मृग, हिमालयन मोनाल, बर्फीला तेंदुआ जैसी प्रजातियों के आवास क्षेत्र खत्म हो रहे हैं, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ा है।

सूख रहे हैं जलस्रोत:
नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (एनआईएम) की रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य के 30% प्राकृतिक जलस्रोत (गाड़-गधेरे) या तो सूख चुके हैं या प्रवाह क्षमता गंवा चुके हैं।

20वर्षों में 30% जल स्रोत सूखे या धारा कमजोर:
पर्यटन का पर्यावरणीय प्रभाव
वाहनों का दबाव व कंपन:
चारधाम मार्ग पर प्रतिदिन 20,000 से अधिक वाहनों की आवाजाही हो रही हैं। (साभार एजेंसी)

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